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    मुस्लिम लेखिका ने हिन्दू समाज के लोगों के गालों पर कैसा करारा थप्पड़ मारा है - The Live Media

    मुस्लिम लेखिका ने हिन्दू समाज के लोगों के गालों पर कैसा करारा थप्पड़ मारा है

    {1} आपकी विवाहित महिलाओं ने माथे पर पल्लू तो छोड़िये, साड़ी पहनना तक छोड़ दिया … दुपट्टा भी गायब ? किसने रोका है उन्हें ? हमने तो तुम्हारा अधोपतन नहीं किया .. हम मुसलमान तो इसके जिम्मेदार नहीं हैं ?

    {2} तिलक बिंदी तो आपकी पहचान हुआ करती थी न.. तुम लोग कोरा मस्तक और सूने कपाल को तो अशुभ, अमंगल और शोकाकुल होने का चिह्न मानते थे न । आपने घर से निकलने से पहले तिलक लगाना तो छोड़ा ही, आपकी महिलाओं ने भी आधुनिकता और फैशन के चक्कर में और फॉरवर्ड दिखने की होड़ में माथे पर बिंदी लगाना तक छोड़ दिया, यहाँ मुसलमान कहाँ दोषी हैं ?

    {3} आप लोग विवाह, सगाई जैसे संस्कारों में पारंपरिक परिधान छोड़कर….लज्जाविहीन प्री-वेडिंग जैसी फूहड़ रस्में करने लगे और जन्मदिवस, वर्षगांठ जैसे अवसरों को ईसाई बर्थ-डे और एनिवर्सरी में बदल दिया, तो क्या यह हमारी त्रुटि है ?

    {4} हमारे यहां बच्चा जब चलना सीखता है तो बाप की उंगलियां पकड़ कर इबादत / नमाज के लिए मस्जिद जाता है और जीवन भर इबादत /नमाज को अपना फर्ज़ समझता है, आप लोगों ने तो स्वयं ही मंदिरों में जाना 🛕 छोड़ दिया । जाते भी हैं तो केवल ५ – १० मिनट के लिए तब, जब भगवान से कुछ मांगना हो अथवा किसी संकट से छुटकारा पाना हो । अब यदि आपके बच्चे ये सब नहीं जानते – करते कि मंदिर में क्यों जाना है ? वहाँ जाकर क्या करना है ? और ईश्वर की उपासना उनका कर्तव्य है …. तो क्या ये सब हमारा दोष है ❓

    {5} आपके बच्चे कान्वेंट ✝️ से पढ़ने के बाद पोयम सुनाते हैं तो आपका सर गर्व से ऊंचा होता है ! होना तो यह चाहिये कि वे बच्चे नवकार मंत्र या कोई श्लोक याद कर सुनाते तो आपको गर्व होता !
    … इसके उलट, जब आज वे नहीं सुना पाते तो न तो आपके मन में इस बात की कोई ग्लानि है, और न ही इस बात पर आपको कोई खेद है !
    हमारे घरों में किसी बाप का सिर तब शर्म से झुक जाता है जब उसका बच्चा रिश्तेदारों के सामने कोई दुआ नहीं सुना पाता ! हमारे घरों में बच्चा बोलना सीखता है तो हम सिखाते हैं कि सलाम करना सीखो बड़ों से, आप लोगों ने प्रणाम और नमस्कार को हैलो हाय से बदल दिया, तो इसके दोषी क्या हम हैं ?

    {6} हमारे मजहब का लड़का कॉन्वेंट से आकर भी उर्दू अरबी सीख लेता है और हमारी धार्मिक पुस्तक पढ़ने बैठ जाता है, और आपका बच्चा न हिन्दू पाठशाला में पढ़ता है और संस्कृत तो छोड़िये, शुद्ध हिंदी भी उसे ठीक से नहीं आती, क्या यह भी हमारी त्रुटि है ?

    {7} आपके पास तो सब कुछ था – संस्कृति, इतिहास, परंपराएं !
    आपने उन सब को तथाकथित आधुनिकता की अंधी दौड़ में त्याग दिया और हमने नहीं त्यागा बस इतना ही भेद है ! आप लोग ही तो पीछा छुड़ाएं बैठे हैं अपनी जड़ों से ! हमने अपनी जड़ें न तो कल छोड़ी थीं और न ही आज छोड़ने को राजी हैं !
    {8} आप लोगों को तो स्वयं ही तिलक, शिखा आदि से और आपकी महिलाओं को भी माथे पर बिंदी, हाथ में चूड़ी और गले में मंगलसूत्र – इन्हें धारण करना अनावश्यक लगने लगा ?

    {9} अपनी पहचान के संरक्षण हेतु जागृत रहने की भावना किसी भी सजीव समाज के लोगों के मन में स्वत:स्फूर्त होनी चाहिये, उसके लिये आपको अपने ही लोगों को कहना पड़ रहा है ।

    {10} जरा विचार कीजिये कि यह कितनी बड़ी विडंबना है ! यह भी विचार कीजिये कि अपनी संस्कृति के लुप्त हो जाने का भय आता कहां से है और असुरक्षा की भावना का वास्तविक कारण क्या है? हम हैं क्या❓

    {11} आपकी समस्या यह है कि आप अपने समाज को तो जागा हुआ देखना चाहते हैं, किंतु ऐसा चाहते समय आप स्वयं आगे बढ़कर उदाहरण प्रस्तुत करने वाला आचरण नहीं करते ।
    जैसे बन गए हैं वैसे ही बने रहते हैं … आप स्वयं अपनी जड़ों से जुड़े हुए हो, ऐसा दूसरों को आप में दिखता नहीं है और इसीलिये आपके अपने समाज में तो छोड़िये, आपके परिवार में भी कोई आपकी धार्मिक बाते सुनता नहीं । ठीक इसी प्रकार आपके समाज में अन्य सब लोग भी ऐसा ही आपके जैसा डबल स्टैंडर्ड वाला हाइपोक्रिटिकल व्यवहार ( शाब्दिक पाखंड ) करते हैं । इसीलिये आपके समाज में कोई भी किसी की नहीं सुनता, क्या यह हमारी त्रुटि है ?

    {12} आपने अपनी दिनचर्या बदली । एक समय था जब आपकी वेशभूषा से कोई भी बता देता था कि ये मारवाड़ी / वैश्य परिवार से है । आप लोगों ने अपनी वेशभूषा छोड़ी, आपने अपना खान-पान बदला, लहसुन प्याज आलू खाना आपके लिए आम बात हो गई, शराब व मांसाहार भी आदतें हो गईं ?

     

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