• द लाइव मीडिया को आवश्यकता है मध्य प्रदेश के सभी जिलों में जिला ब्यूरो एवं संवाददाता की संपर्क करें चिराग उपाध्याय 8085 9030 49
    बाजीराव पेशवा का पालखेड़ का संग्राम 25 फरवरी 1728 - The Live Media

    बाजीराव पेशवा का पालखेड़ का संग्राम 25 फरवरी 1728

    #BajiraoPeshwa बाजीराव पेशवा (प्रथम) – पालखेड़ का ऐतिहासिक संग्राम

    25 फरवरी 1728

     

    द्वितीय विश्व युद्ध के प्रसिद्ध सेनानायक फील्ड मार्शल मांटगुमरी ने युद्धशास्त्र पर आधारित अपनी पुस्तक ‘ए कन्साइस हिस्ट्री ऑफ़ वारफेयर’ में विश्व के सात प्रमुख युद्धों की चर्चा की है। इसमें एक युद्ध पालखेड़ (कर्नाटक) का है, जिसमें 27 वर्षीय बाजीराव पेशवा (प्रथम) ने संख्या व शक्ति में अपने से दुगनी से भी अधिक निजाम हैदराबाद की सेना को हराया था।

     

    बाजीराव (प्रथम) शिवाजी के पौत्र छत्रपति शाहूजी के प्रधानमंत्री (पेशवा) थे। उनके पिता श्री बालाजी विश्वनाथ भी पेशवा ही थे। उनकी असामयिक मृत्यु के बाद मात्र 20 वर्ष की अवस्था में ही बाजीराव को पेशवा बना दिया गया।

     

    बाजीराव का देहांत भी केवल 40 वर्ष की अल्पायु में ही हो गया; पर पेशवा बनने के बाद उन्होंने जितने भी युद्ध लड़े, किसी में भी उन्हें असफलता नहीं मिली। इस कारण हिन्दू सेना व जनता के मनोबल में अतीव वृद्धि हुई।

     

    औरंगाबाद के पश्चिम तथा वैजापुर के पूर्व में स्थित पालखेड़ गांव में 25 फरवरी, 1728 को यह युद्ध हुआ था। पालखेड़ चारों ओर से छोटी-बड़ी पहाड़ियों से घिरा है। निजाम के पास विशाल तोपखाना था; पर बाजीराव के पास एक ही दिन में 75 कि.मी. तक चलकर धावा बोलने वाली घुड़सवारों की विश्वस्त टोली थी।

     

    जिस प्रकार शिकारी चतुराई से शिकार को चारों ओर से घेरकर अपने कब्जे में लेता है, उसी प्रकार बाजीराव ने निजाम की सैन्य शक्ति तथा पालखेड़ की भौगोलिक स्थिति का गहन अध्ययन किया। जब उसे निजाम की सेना के प्रस्थान का समाचार मिला, तो वह बेटावद में था। उसने कासारबारी की पहाड़ियों से होकर औरंगाबाद जाने का नाटक किया। इससे निजाम की सेना भ्रम में पड़ गयी; पर अचानक बाजीराव ने रास्ता बदलकर दक्षिण का मार्ग लिया और पालखेड़ की पहाड़ियों में डेरा डाल दिया।

     

    इसके बाद उसने पहले से रणनीति बनाकर धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा की और निजाम की सेना को इस मैदान में आने को मजबूर कर दिया। निजाम के पास तोपों को विशाल बेड़ा था; पर यह घाटी संकरी होने के कारण वे तोपें यहां आ ही नहीं सकीं। परिणाम यह हुआ कि जितनी सेना घाटी में आ गयी, बाजीराव ने उसे चारों ओर से घेरकर उसकी रसद पानी बंद कर दी। सैनिक ही नहीं, तो उनके घोड़े भी भोजन और पानी के अभाव में मरने लगे।

     

    यह हालत देखकर निजाम को दांतों तले पसीना आ गया और उसे घुटनों के बल झुककर संधि करनी पड़ी। छह मार्च, 1728 को हुई यह संधि ‘शेवगांव की संधि’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस संधि से पूर्व बाजीराव ने जमानत के तौर पर निजाम के दो प्रमुख कर्मचारियों को अपने पास बंदी रखा।

     

    संधि के अनुसार अक्कलकोट, खेड, तलेगांव, बारामती, इंदापुर, नारायणगढ़ तथा पूना आदि जो स्थान किसी समय मराठा साम्राज्य में थे, वे सब फिर से मराठों के अधिकार में आ गये। इसी प्रकार दक्खिन के सरदेशमुखी की सनद व स्वराज्य की सनद भी निजाम ने इस संधि के अनुसार मराठों को सौंप दी।

     

    परन्तु दुर्भाग्यवश छत्रपति शाहू जी कमजोर दिल के प्रशासक थे। वे बाजीराव जैसे अजेय सेनापति के होते हुए भी मुसलमानों से मिलकर ही चलना चाहते थे। उन्होंने बाजीराव को संदेश भेजा कि निजाम को समूल नष्ट न किया जाए और उसका अत्यधिक अपमान भी न करें।

     

    इसका परिणाम यह हुआ कि 1818 में पेशवाई तो समाप्त हो गयी; पर अंग्रेजों की सहायता से निजाम फिर शक्तिशाली हो गया और देश की स्वाधीनता के बाद गृहमंत्री सरदार पटेल के साहसी कदम से 1948 में ही उसका पराभव हुआ।

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *